शिक्षकों की गरिमा और बच्चों का हक – शिक्षक दिवस पर विचार विमर्श
भारतीय समाज में शिक्षकों को सम्मान का विशेष दर्जा प्राप्त है। इसके बावजूद भी उनके सम्मान में शायद शिक्षक दिवस की जरूरत है। हमारे देश के द्वितीय राष्ट्रपति श्री सर्वपल्ली राधाकृष्णण ने कहा था कि यदि उनका जन्मदिन मनाना ही है तो वह शिक्षकों के सम्मान दिवस के रूप में मनाया जाये। वे स्वयं एक शिक्षक थे तथा बेहतर राष्ट्र के निर्माण में शिक्षकों की भूमिका को महत्वपूर्ण मानते थे। उन्होंने भारतीय दर्शन को विश्व मानचित्र पर सम्मान का दर्जा दिलाने में अग्रणी भूमिका निभाई। वैसे समाज में शिक्षक होने के मायने भी बदलते रहते हैं। हम आज उसी पुरातन अपेक्षा को नही ढो सकते जिसमें शिक्षक से अपेक्षा की जाती थी कि उनके पास ज्ञान भरा हो और उन्हें इसे छात्र को हस्तांतरित करना आता हो। शिक्षकों का सम्मान आज उस ढर्रे में नही है, जिसमें शिक्षक को संपूर्ण प्राधिकार सौंप कर छात्र सम्पूर्ण समर्पण कर देते हैं। शिक्षक की इस चमत्कारिक भूमिका को उसके सिंहासन से उतार कर नई शिक्षा पध्दति में शिक्षक के सम्मान को ढ़ूंढ़ना जरूरी है जिसमें हर बच्चा अद्वितीय है, जिसमें हर एक बच्चे को अधिकार है, जिसमें स्कूली ज्ञान लोगों के ज्ञान व अनुभव से जुड़ा है।
‘निःशुल्क व अनिवार्य बाल शिक्षा का अधिकार कानून’ 6-14 वर्ष के सभी बच्चों को सीखने का हक प्रदान करता है। पर इसके लागू होने के तीन साल के बाद भी हम सभी बच्चों को बेहतर शिक्षा का समान अवसर दे पाने में सफल नहीं हो पाए हैं। जब 2013 में शिक्षक दिवस मनाने का विचार करते हैं, तो स्वाभाविक रूप से कुछ मूल प्रश्न उठते हैं। हम सब चिंता करते हैं कि समाज में शिक्षकों की गरिमा का ह्रास हुआ है। वैसे तो कई दूसरे पेशों में भी यह ह्रास दिखता है। लेकिन शिक्षकों के संदर्भ में यह अधिक चिंता का विषय है, क्योंकि शिक्षक हमारे संविधान की मंशा के अनुरूप समता, समानता और न्याय पर आधारित समाज के विकास में अहम भूमिका रखते हैं। सरकार के स्कूल वंचित बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा नही दे पा रहे हैं। इसके लिये क्या मुख्य रूप से शिक्षक ही दोषी हैं या पूरा शिक्षा तंत्र? गरिमा के ह्रास के लिए सिर्फ शिक्षकों को केन्द्र में रखना सतही विश्लेषण है। इसके लिए शिक्षा तंत्र की कार्य प्रणाली का भी विश्लेषण जरूरी है।
स्कूली व्यवस्था को चुस्त-दुरूस्त करने के लिए निरीक्षणों की परिपाटी पर गौर करना जरूरी है। औपनिवेशिक काल से लगभग एक जैसी चली आ रही इस परिपाटी में कभी जिले या ब्लाक स्तर से तो कभी शासन स्तर से निरीक्षणों की झड़ी लग जाती है। इनको औचक निरीक्षण या नियमित निरीक्षण जैसे नामों से जाना जाता है। इसकी सूचना यदि स्कूल के स्टाफ को मिल जाती है, तो साफ-सफाई और कुछ भौतिक संसाधनों को व्यवस्थित करने की मशक्कत करनी होती है। निरीक्षण में अभिलेखों की जांच-पड़ताल होती है कि कहां कोई कमी मिल जाए, न कि इस नजर से कि वास्तव में समस्या क्या है और उसके कारण क्या हैं? इसका विश्लेषण नहीं किया जाता। समस्या के समाधान के लिए विकल्प सुझाने की कोशिश भी कम ही होती है। फिर बारी आती है कक्षा में सवाल पूछकर बच्चों की सीख जांचने की- ‘‘चलो तुम इसे जोड़ कर बताओ, 17 का पहाड़ा सुनाओ या इसे पढ़ो’’। बिना सहज वातावरण बनाए ऐसे सवाल पूछना बच्चों को कितना आंतकित कर देता है, यह एक शिक्षक होने के नाते ही समझ में आता है। ऐसे तमाम उदाहरण हैं, जब प्रशासनिक सेवा से जुड़े बड़े अधिकारी ने पूछा पढ़कर बताओ तो बच्चा नहीं बता पाया, लेकिन बच्चे को पढ़ाने वाले शिक्षक ने पूछा तो उसने पढ़ लिया। निरीक्षण के तरीकों पर मुन्शी प्र्रेमेमचन्द्र जी ने कहा है कि- ‘‘कुछ तो रूपयों की कमी है और कुछ बेजा खर्च, कभी-कभी सरकार ने दो चार लाख ज्यादा दिया तो वह इंस्पेक्टर और डायरेक्टरों और मैं और तू के बांट बटवारे में पड़ जाता है और मुदर्रिस ज्यों का त्यों भूखा रह जाता है। दुर्भाग्य से सरकार का ख्याल है कि मुआयना ज्यादा होना चाहिए, चाहे तालीम हो न हो। मुआयने पर रूपया खर्च किया जाता है, मगर तालीम की खबर नहीं ली जाती। गवर्नमेंट कब यह समझेगी कि मुआयना कभी तालीम की जगह नहीं ले सकता।’’ ये पंक्तियां आज के यथार्थ से काफी मेल खाती हैं। मंत्रियों और उच्च अधिकारियों के निरीक्षण में पाई गई निराशाजनक स्थिति अधिकारियों और शिक्षकों के निंलबन या अन्य कोई विभागीय कार्यवाही का सबब बनती है। इससे समस्या का तात्कालिक समाधान तो हो सकता है लेकिन स्थायी नहीं। जब शिक्षक स्वयं इस तरह की प्रक्रियाओं से गुजरते हैं तो वह भी बच्चों को यंत्रणा देने में सहज महसूस करते हैं। यह उनकी इच्छा से नही, बल्कि पैदा की गयी मनोअवस्था से जुड़ी होती है। अतः जरूरत एक ऐसे तंत्र को विकसित करने की है, जो स्कूल को अपेक्षाओं की कसौटी पर खरा सिद्ध कर सके।
शिक्षाविद् गिजुभाई बधेका ने बच्चों की बेहतर शिक्षा के लिये कई प्रयागे किये तथा अपने अनुभवों को उन्होंने ‘दिवास्वप्न’ नामक पुस्तक में कथाशैली में लिखा है। उनके द्वारा आज से करीब 8 दशक पहले बाल केन्द्रित शिक्षा के लिए कई प्रयोग किये गए, जिसका आज भी गुणगान होता है। ‘दिवास्वप्न’ का मुख्य पात्र अपने बेहतर शिक्षण का प्रयोग एक सरकारी स्कूल में करता है जहां उसे अधिकारियों की आलोचना सहनी पड़ी। प्रयोग के अंत में अधिकारियों की उपस्थिति में परीक्षा भी उन्होंने अपने तरीके से ही ली तथा अधिकारियों के विचार को बदलने में कामयाब हुए। एन.बी.टी. द्वारा प्रकाशित इस किताब के सन्दर्भ में शिक्षाविद व निदेशक एर्न.सी.इ. आर.टी. कृष्ण कुमुमार लिखते हैं- ‘‘बच्चों के शिक्षक को लाचारी और जड़ता के जिन बंधनों में उपनिवेशी शासन ने कोई डेढ़ सौ बरस हुए बांधा था, वे अभी कटे नही हैं। अध्यापक की उदासीन मानसिक अवस्था को सहन करना इस प्रकार करोड़ों बच्चों की विवशता बन गई है।’’
दूसरी तरफ क्षमतावृद्धि और मनोबल के लिए किए जाने वाले प्रशिक्षण व अन्य प्रयासों से शिक्षक खुद को और उलझा हुआ पाते हैं और न ही प्रेरित होकर कोई पहल ले पाते हैं। तभी तो कृष्ण कुमार कहते हैं कि शिक्षकों के संदर्भ में ‘प्रशिक्षण’ शब्द ही अनुपयुक्त है क्योंकि इस शब्द की उत्पत्ति जानवरों के प्रशिक्षणों से हुई है। इन्ही चिंताओं के तहत उन्होंने अपनी किताब ‘गुलामी की शिक्षा और राष्ट्रवाद’ में कहा हैं ‘‘दरअसल शिक्षक प्रशिक्षण की अवधारणा, साथ ही इसकी विषयवस्तु भी एक समय से ज्यादा समय से एक ही जगह पर स्थिर बनी हुई है, कुछ हल्के बदलाव भी किए गए जैसे कि मनोविज्ञान तथा शैक्षिक सिध्दातों के पढ़ाने में, लेकिन प्रशिक्षण के केन्द्रीय तत्व, यानी शिक्षण का व्यवहार बिल्कुल नही बदला है’’।
शिक्षकों को अपना ज्ञान बनाने में मदद करने की सहभागी व्यवस्था के बिना हम कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि वे भी बच्चों को समझ कर सीखने में मदद कर पायेंगें। शिक्षकों को अपने बेहतर अनुभवों, नवाचारों को बांटने के लिए कोई मंच नहीं मिल पाता। ऐसे में जिन शिक्षकों ने कुछ बेहतर जमीनी प्रयास किये होते हैं उसे दूसरों से बांटने का उन्हें अवसर नही मिल पाता। इससे उनका मनोबल गिरता है। इन हालातों में जरूरत है शिक्षकों के ऐसे मंच को बढ़ावा देने की जहां जमीनी अनुभवों को बांटा जाता हो, चुनौतियों के बेहतर रास्ते खोजे जाते हों। इस क्रम में लोकमित्र द्वारा रायबरेली के कुछ ब्लाक में शिक्षकों के बीच चलाये जा रहे शैक्षिक संवाद मंच की प्रक्रिया संभावना जगाती है। यह पहल यह दिखाती है कि शिक्षकों को अपनी गरिमा की चिंता है। आवश्यकता है उन्हे एक ऐसे चिंतन प्रक्रिया से जोड़ने कि जिससे कि वे स्कूलों की प्रगति व चुनौतियों का सही आकलन कर सकें। बेहतर इंसान व बेहतर समाज निर्माण के लक्ष्यों के साथ वे शिक्षा के बड़े सरोकारों से अपने को जोड़ने का उत्साह पैदा कर सकें। परन्तु दुर्भाग्य से ऊपर से नियंत्रित और निर्देशित इस तंत्र में शिक्षक की जिम्मेदारी आंकड़ों के लेन-देन तक हीं सीमित कर दी जाती है और अपने आप को औपचारिकताओं में उलझा हुआ पाते हैं।
ऊपर से नियंत्रित और निर्देशित इस तंत्र में शिक्षक की स्वायत्तता लगभग समाप्त हो जाती है। क्या पढ़ाएं, कैसे पढ़ाएं इस सब के लिए ऊपर से निर्देशों के आने का इंतजार करना पड़ता है। या कहें कि उन निर्देशों को ही लागू करने में लगे रहना होता है। उदाहरण के लिये यदि कक्षा चार या पांच में कुछ ऐसे बच्चे हैं जो 100 तक की गिनती पर कम समझ रखते हैं तो अधिकांश शिक्षक उनके लिये अलग से कुछ करने के लिये भी ऊपरी आदेश का इंतजार करेंगें।
कुछ लोगों को लगेगा कि ऐसी स्वायतत्ता से शिक्षक मनमानी करने लगेंगे, उनकी जवाबदेही नहीं होगी। यहां स्वायत्तता से आशय स्कूल की परिस्थितियों के अनुसार स्वविवेक से लिए गए निर्णयों को लागू करने से है। विभिन्न समय में निर्धारित शिक्षा नीति इस स्वायतत्ता के दायरे को तय करेगी जैसे कि राष्ट्रीय पाठय् चर्या की रूपरेखा 2005। लक्ष्य प्राप्त करने के लिये शिक्षक को सामूहिक समझ से आगे बढ़ना होगा। शिक्षकों की स्वायत्तता के साथ का स्थानीय जवाबदेही तंत्र को भी मजबूत करना होगा।
‘निःशुल्क व अनिवार्य बाल शिक्षा का अधिकार कानून-2009’ के तहत पूरे प्रदेश में ‘विद्यालय प्रबंध समिति’ का दुबारा से गठन हो रहा है। ‘विद्यालय प्रबंध समिति’ को सिर्फ शिक्षकों के जवाबदेही के लिए देखना एक भूल होगी। सभी बच्चों के सीखने के हक को सुनिश्चित करने के लिए स्कूल में ऐसी व्यवस्था खड़ी करने की जरूरत है जहां शिक्षक और अभिभावक मिलकर विचार करते हों। स्कूल के विकास व प्रबंध में कई समस्यायें आती हैं। इसके लिए शिक्षक तथा समिति के सदस्य मिल कर प्रयास करें तो बेहतर समाधान निकाल सकते हैं। यह भी देखा गया है कि बेहतर शिक्षा की मांग जब समाज से उठकर राजसत्ता तक जाती है तो शिक्षा के लिए पर्याप्त संसाधन व समुचित व्यवस्था हो पाती है। लोकमित्र ने इन अभिभावकों की समितियों का ब्लाक स्तरीय संघ बना कर अभिभावकों की आवाज को और मजबूती देने का प्रयास किया है। इस प्रकार शिक्षा तंत्र तथा बच्चों के माता-पिता के प्रति जवाबदेह हो जाता है। इससे स्कूल आधारित प्रबंधन की एक ऐसी व्यवस्था बनेगी जिसमंे स्कूली शिक्षा की बेहतरी के तत्कालिक समाधान के बजाय स्थायी समाधान हो पाएगा।
‘दिवास्वप्न’ में ऐसे शिक्षक की कल्पना की गई है जो शिक्षा के दकियानूसी संस्कृति को नही स्वीकारता है और परंपरा व पाठय् पुस्तकों की सचेत अवहेलना करके बच्चों के प्रति सरस और प्रयोगशील बना रहता है। फिर वैसे शिक्षकों के उभर पाने के लिये विकल्पों की तलाश और उसको लेकर आगे बढ़ने के पहल हीं शायद शिक्षक दिवस को सही मायने में सार्थक दिवस बना पायेगा।